तारों की बरसात
तारों भरी रात में गहरे आसमान के नीचे बैठी और अपनी ज़िन्दगी के फलसफों के बारे में सोचने लगी | सोचते सोचते सोचा कि कितनी ही बार तारों की बरसात हुई है, और मैं उंगलियां फैलाये तारों की बरसात में भीगने को दौड़ पड़ती हूँ | तारे उँगलियों से टकराते हैं और फिसल जाते हैं | तब ख़याल आता है कि दूर से चमकने वाले तारे, चिकने-चमकदार पत्थरों से बनते हैं क्या? आसमान पर बसने वाले तारों का वजूद क्या सिर्फ पत्थर हो सकता है? खैर ख्यालों का क्या है? लम्बी दूरी बस यूं ही तय कर लेते हैं पालक झपकते ही | इन्ही दौड़ते शरारती ख्यालों में एक धीमा सा चलता, मुस्कुराता और कुछ सोचता सा ख्याल आया कि शायद ये उँगलियों से इतनी नज़दीकी से छूट जाने वाले बरसाती तारे क्या पता कुछ फुसफुसा रहे हों ? क्या पता कह रहे हों- उंगलियां समेट लो तो दुआ बन जायेगी | क्या पता अगली बरसात मुट्ठी में मुकककमल हो जाए?